सेहतनामा- क्या आपका दिमाग भी है पॉपकॉर्न ब्रेन:सोशल मीडिया रील्स दिमाग के लिए खतरा, 8 तरीकों से अपने ब्रेन को रखें सुरक्षित
By : Devadmin -
क्या आप पॉपकॉर्न ब्रेन का शिकार हैं? पॉपकॉर्न ब्रेन मतलब ऐसा दिमाग, जो एक सेकेंड भी एक जगह टिककर नहीं रह सकता। कभी कूदकर यहां, कभी कूदकर वहां। आप नेटफ्लिक्स पर अपना सबसे फेवरेट शो देख रहे हैं, लेकिन तभी आपका हाथ मोबाइल की तरफ बढ़ता है और आप साथ-साथ रील भी चलाने लगते हैं या ट्विटर पर ट्वीट चेक करने लगते हैं। आप बहुत साल बाद अपने किसी पुराने दोस्त से मिले हैं, लेकिन बातों के बीच में ही बार-बार अपने आप हाथ फोन की तरफ चला जाता है। आप एक किताब लेकर बैठे। एक पन्ना भी नहीं पढ़ा कि उसे छोड़कर दूसरी किताब उठा ली। एक गाना सुनना शुरू किया, दो मिनट भी नहीं सुन पाए कि दूसरा चला दिया। एक चैनल लगाया, डेढ़ मिनट भी नहीं देखा कि चैनल चेंज कर दिया। एक टॉपिक पर बात शुरू की और तुरंत दूसरे पर कूद पड़े। अगर आपको लग रहा है कि ये आपकी ही कहानी है तो सच ही होगा। क्योंकि इस सोशल मीडिया के युग में ये अधिकांश लोगों की कहानी है। इसके पीछे बड़ा कारण सोशल मीडिया का ज्यादा इस्तेमाल है। यही है पॉपकॉर्न ब्रेन। साल 2011 में वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के रिसर्चर डेविड लेवी ने एक मेंटल सिचुएशन के लिए ‘पॉपकॉर्न ब्रेन’ शब्द का इस्तेमाल किया था। जब किसी शख्स के विचारों में स्थिरता न हो। फोकस हिल गया हो। दिमाग एक विषय के बारे में सोचते हुए तेजी से दूसरे, फिर तीसरे विषय पर भटकने लगे तो इसे पॉपकॉर्न ब्रेन कहते हैं। ठीक वैसे ही जैसे गर्म बर्तन में पॉपकॉर्न के दाने एक के बाद एक तेजी से कूदते और फूटते रहते हैं। इससे लोगों का वर्क परफॉर्मेंस और पर्सनल लाइफ बड़े स्तर पर प्रभावित होती है। रचनात्मक और भाषायी क्षमता पर भी असर पड़ता है। आज ‘सेहतनामा’ में बात करेंगे ‘पॉपकॉर्न ब्रेन’ की। साथ ही जानेंगे कि- बीते साल बेंगलुरु के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंसेज ने ऐसे शॉर्ट स्पैन और पॉपकॉर्न ब्रेन से जुड़ी कई केस स्टडी के बारे में बताया था। उनमें से एक 17 साल के लोकेश सेन के केस को मिसाल के तौर पर देखते हैं। क्लास टॉपर के आए 50% मार्क्स बेंगलुरु में रहने वाले 17 साल के लोकेश सेन अपने परिवार के इकलौते बच्चे हैं। उन्हें कई दूसरे बच्चों की तरह शॉर्ट वीडियो देखने की लत लग गई। वह यूट्यूब और इंस्टाग्राम पर रील्स देखने में ही दिन के 7 से 8 घंटे गुजारने लगे। कई घंटे तक लगातार शॉर्ट वीडियो देखने से लोकेश के मस्तिष्क के कॉग्निटिव फंक्शन बुरी तरह प्रभावित हो गए। वह छोटी-छोटी बातें भूलने लगे, लंबे समय तक कुछ भी याद नहीं रख पाते थे। किसी एक चीज पर उनका ध्यान टिकता ही नहीं था। लोकेश के पैरेंट्स की चिंता तब और बढ़ गई, जब बोर्ड एग्जाम में उनके मात्र 50% मार्क्स आए। जबकि इससे पहले वह क्लास के टॉपर थे। असल में बच्चे को पॉपकॉर्न ब्रेन की शिकायत थी। उसका अटेंशन स्पैन घटकर कुछ सेकेंड का ही बचा था। इसके बाद सुधार के लिए लगातार काउंसिलिंग सेशन करने पड़े। दुनिया में अटेंशन स्पैन का क्या हाल है अटेंशन स्पैम का मतलब है कि आप बिना भटके किसी काम में लगातार कितनी देर तक अपना ध्यान लगाए रख सकते हैं। यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, इरविन की एक स्टडी के मुताबिक इंसानों का औसत अटेंशन स्पैन तेजी से नीचे गिरा है। यह बीते 20 सालों में 2.5 मिनट से घटकर 47 सेकेंड तक पहुंच गया है। अटेंशन स्पैन घटने से हमारे काम की गुणवत्ता अपने आप कम होने लगती है। इसका सीधा असर दफ्तर के काम, स्कूल-कॉलेज की पढ़ाई और पारिवारिक संबंधों पर पड़ता है। हम कैसे समझें कि हमारा अटेंशन स्पैन कम हो रहा है। आइए ग्राफिक में देखते हैं। शॉर्ट अटेंशन स्पैन के क्या नुकसान हैं क्लीवलैंड क्लिनिक के मुताबिक, शॉर्ट अटेंशन स्पैन से हमारी याद रखने की क्षमता, भाषा और दिमागी विकास पर बुरा असर पड़ता है। इससे प्रभावित बच्चे लंबे समय तक टिककर पढ़ नहीं पाते। उनकी बोली-भाषा में अजीब से बदलाव आ सकते हैं। इसके अलावा उनके दिमाग का विकास भी पूरी तरह नहीं हो पाता है। रचनात्मकता कम हो रही है शॉर्ट वीडियो और रील्स AI द्वारा इस तरह व्यवस्थित होते हैं कि इनमें एक समय में एक ही तरह का कंटेंट ट्रेंड के हिसाब से वायरल होता है। इस वजह से हम आमतौर पर शॉर्ट वीडियो में बार-बार एक जैसा कंटेंट देख रहे होते हैं। जैसे, कोई गाना ट्रेंड कर रहा है तो उस गाने पर कई लोगों ने एक ही तरह के डांस स्टेप्स में वीडियो बनाए होते हैं। हम बार-बार वही देख रहे होते हैं। इसका सीधा असर हमारी रचनात्मकता पर पड़ता है। तुरंत रिजल्ट पाने के आदी हो रहे हैं शॉर्ट वीडियो का विज्ञान ऐसा है कि हमारा दिमाग धीरे-धीरे तुरंत परिणाम पाने का आदी हो जाता है। इस विज्ञान को क्लीवलैंड क्लिनिक ने आसान भाषा में समझाया है। ग्राफिक में देखिए। हमारे दिमाग पर पड़ रहा असर फ्रांस में इंस्टीट्यूट ऑफ ओपिनियन एंड मार्केटिंग स्टडीज द्वारा 2023 में किए गए एक सर्वे से पता चला कि 65% पैरेंट्स मानते हैं कि लगातार स्क्रीन देखने से उनके बच्चों की ग्रोथ पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। पैरेंट्स ने अपने बच्चों में व्यवहार संबंधी समस्याएं देखीं, जैसे अटेंशन डिसऑर्डर, हाइपर एक्टिविटी और नींद में समस्या। ज्यादातर बच्चे क्यों होते हैं इसका शिकार शॉर्ट वीडियो की सबसे ज्यादा लत बच्चों को है। इसलिए सबसे अधिक नुकसान भी उनमें ही देखने को मिल रहा है। असल में कम उम्र में मस्तिष्क का प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स यानी दिमाग का वह हिस्सा पूरी तरह से विकसित नहीं हो पाता, जो निर्णय लेने और भावनाएं नियंत्रित करने के लिए जिम्मेदार है। इसलिए बच्चे इन वीडियो को देखने का समय नियंत्रित नहीं कर पाते। वह यह भी नहीं तय कर पाते हैं कि उन्हें देखना क्या है। पॉपकॉर्न ब्रेन में सुधार के लिए क्या करें पॉपकॉर्न ब्रेन में सुधार के लिए क्लीवलैंड क्लिनिक ने कुछ तरीके सुझाए हैं। ग्राफिक में देखिए। ग्राफिक में दिए इन पॉइंट्स को विस्तार से समझते हैं- -दिमाग को भटकने से रोकने के लिए गैरजरूरी ऐप्स के नोटिफिकेशन बंद कर दें। -ऑफिस, दोस्तों और करीबी लोगों को बताएं कि 8 बजे के बाद आप अपने पास नहीं रखते। इमर्जेंसी में मैसेज न करके सिर्फ फोन करें। -सोशल मीडिया के लिए लैपटॉप या टैबलेट जैसे वैकल्पिक डिवाइस का उपयोग करें। अपने मोबाइल फोन से ये ऐप्स हटा दें। -सोशल मीडिया चेक करने के लिए एक टाइम स्लॉट तय कर लें। जैसे कि हर 4 घंटे में कुछ मिनट के लिए इस्तेमाल करेंगे। -अच्छी नींद के लिए फोन को अपने बेड से दूर रखें। -सोने से कम-से-कम एक घंटे पहले और जागने के एक घंटे बाद तक किसी भी इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस के इस्तेमाल से बचें। -ऐसे शौक अपनाएं, जिससे आपका मूड अच्छा बना रहे और सोशल मीडिया से ध्यान हटाने में मदद मिले। -माइंडलेस स्क्रॉलिंग की आदत को बदलने के लिए चेस, सुडोकू या पजल हल करना सीखें। -स्क्रीन से ब्रेक लेकर कुछ समय बाहर प्रकृति में बिताएं। -टेक फ्री पीरियड्स प्लान करें। मतलब कुछ समय ऐसा निकालें, जिसमें किसी भी तकनीकी उपकरण का इस्तेमाल न किया जाए। छुट्टी का दिन इसके लिए सबसे अच्छा वक्त हो सकता है। -एकाग्रता और जागरुकता बढ़ाने के लिए माइंडफुलनेस तकनीक का अभ्यास करें। इसके लिए ध्यान लगा सकते हैं, पजल हल कर सकते हैं और योग कर सकते हैं। -अगर आपको स्वयं सोशल मीडिया के इस्तेमाल को कम करने में मुश्किल आ रही है तो काउंसिलर की मदद लेने में संकोच न करें।
Source: Health