फूड डेस्क. ऐसा शायद ही कोई होगा, जिसने कभी इमरती न खाई हो। इमरती को जहांगीरी भी कहा जाता है। इसे यह नाम मुगल सम्राट जहांगीर की वजह से ही मिला है। इमरती का उदगम मुगल काल में उस समय हुआ था, जिस समय जहांगीर प्रिंस हुआ करते थे। शेफ और फूड प्रजेंटेटर हरपाल सिंह सोखी से जानिए कैसे इमरती का जन्म हुआ…
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जहांगीर को मिठाइयों का बड़ा शौक था। लेकिन वे लड्डू, खीर आदि खाकर बोर हो गए थे। वे कुछ ऐसा खाना चाहते थे, जो इससे पहले कभी न खाया हो। उन्होंने अपने बावर्चीखाने के खानसामे से कोई नई स्वीट डिश बनाने को कहा। इस समय तक हिंदुस्तान में ईरान से जलेबी का पदार्पण हो चुका था। जब खानसामे को कुछ नया नहीं सूझा तो उसने जलेबी के साथ ही प्रयोग करने का निश्चय किया। उसने उड़द को महीन पीसकर उसका घोल बनाया और बाकी की प्रोसेस वही अपनाई, जो जलेबी बनाने में इस्तेमाल लाई जाती है। जहांगीर को खुश करने के लिए उसने उड़द दाल की उस जलेबी में फूल जैसी कुछ डिजाइन डाल दी। चाशनी में उसने रंग के लिए केसर, केवड़ा, कपूर और लौंग भी मिला दिया। तैयार हो गई एक नई डिश जो थी तो जलेबी जैसी, लेकिन स्वाद में बिल्कुल अलहदा। जहांगीर को यह खूब पसंद आई। ऑरेंज कलर की इस नई डिश को तब ‘जहांगीरी’ नाम दिया गया। बाद में यही डिश इमरती कहलाई।
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इमरती की बात चली और उप्र के जौनपुर की चर्चा न हो, यह नहीं हो सकता। जौनपुर की बेनीराम इमरती काफी फेमस है। बेनीराम इमरती की दुकान करीब 165 साल पुरानी है। इसे साल 1855 में बेनीराम देवी प्रसाद ने शुरू किया था। आज उनकी चौथी पीढ़ी इमरतियां बनाने का काम जारी रखे हुए हैं। इनकी इमरती की खासियत यह है कि ये 10 से 12 दिन तक खराब नहीं होती। दरअसल, ब्रिटिश
राज में बेनीराम एक डाकिया हुआ करते थे। एक दिन उनके अंग्रेज अफसर ने उनसे खाना बनाने को कहा। बेनीराम ने खाने के साथ मीठे में इमरती भी बना दी। जब उस अंग्रेज अफसर ने उसे खाया तो उसे वह बहुत पसंद आई। उसने बेनीराम से कहा कि वह डाक विभाग में अपनी जिंदगी बर्बाद कर रहा है। उसे तो इमरती बनाने का बिजनेस शुरू करना चाहिए। अफसर के जोर देने पर बेनीराम ने इमरती बनाने का काम शुरू किया। उनकी दुकान चल पड़ी। आज भी न तो उनकी दुकान में कोई ज्यादा बदलाव आया है और न ही उनकी इमरती के स्वाद में। इमरती के साथ धार्मिक मान्यता भी जुड़ी है। -
दक्षिण भारत में ऐसे कई मंदिर हैं जहां हनुमानजी को भोग में इमरती की माला चढ़ाई जाती है। इसके पीछे भी एक धार्मिक कहानी है। इसके अनुसार जब हनुमानजी छोटे थे, तब उन्होंने सूरज को फल समझकर उसे खाने का निश्चय किया। और यह निश्चय करके वे सूरज की ओर बढ़े। यह भी मान्यता है कि जब राहु सूरज को निगलता है, तो सूर्यग्रहण होता है। तो सूर्यग्रहण के लिए राहु भी सूरज को निगलने को निकला। राहु की गति कल्पना से परे थी। लेकिन वायु पुत्र होने के कारण हनुमानजी ने राहु को परास्त कर दिया। तब राहु ने कहा कि जो भी हनुमान को उड़द का भोग लगाएगा, उसे राहु दोष से मुक्ति मिलेगी। इसीलिए हनुमानजी को उड़द की दाल से बनी इमरती चढ़ाने का नियम बनाया गया।
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Source: Health